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यस्मा॑ज्जा॒तं न पु॒रा किं च॒नैव य आ॑ब॒भूव॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ स॒ षो॑ड॒शी ॥५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मा॑त्। जा॒तम्। न। पु॒रा। किम्। च॒न। ए॒व। यः। आ॒ब॒भूवेत्या॑ऽऽ ब॒भूव॑। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ प्र॒जाऽप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। प्र॒जया॑ स॒ꣳर॒रा॒ण इति॑ सम्ऽररा॒णः। त्रीणि॑। ज्योती॑षि। स॒च॒ते॒। सः। षो॒ड॒शी ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:32» मन्त्र:5


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (पुरा) पहिले (किम्, चन) कुछ भी (न जातम्) नहीं उत्पन्न हुआ, (यः) जो सब ओर (आबभूव) अच्छे प्रकार से वर्त्तमान है, जिसमें (विश्वा) सब (भुवनानि) वस्तुओं के आधार सब लोक वर्त्तमान हैं, (सः एव) वही (षोडशी) सोलह कलावाला (प्रजया) प्रजा के साथ (सम्, रराणः) सम्यक् रमण करता हुआ (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक अधिष्ठाता (त्रीणि) तीन (ज्योतींषि) तेजोमय बिजुली, सूर्य्य, चन्द्रमा रूप प्रकाश ज्योतियों को (सचते) संयुक्त करता है ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - जिससे ईश्वर अनादि है, इस कारण उससे पहिले कुछ भी हो नहीं सकता, वही सब प्रजाओं में व्याप्त जीवों के कर्मों को देखता और उनके अनुकूल फल देता हुआ न्याय करता है, जिसने प्राण आदि सोलह वस्तुओं को बनाया है, इससे वह षोडशी कहाता है (प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक और नाम) ये षोडश कला प्रश्नोपनिषद् में हैं। यह सब षोडश वस्तुरूप जगत् परमात्मा में है, उसी ने बनाया और वही पालन करता है ॥५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यस्मात्) परमेश्वरात् (जातम्) उत्पन्नम् (न) निषेधे (पुरा) पुरस्तात् (किम्) (चन) किञ्चिदपि (एव) (यः) (आबभूव) समन्ताद्भवति (भुवनानि) लोकजातानि सर्वाऽधिकरणानि (विश्वा) सर्वाणि (प्रजापतिः) प्रजायाः पालकोऽधिष्ठाता (प्रजया) प्रजातया (सम्) (रराणः) सम्यक् रममाणः (त्रीणि) विद्युत्सूर्यचन्द्ररूपाणि (ज्योतींषि) तेजोमयानि प्रकाशकानि (सचते) समवैति (सः) (षोडशी) षोडश कला यस्मिन् सन्ति सः ॥५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यस्मात् पुरा किञ्चन न जातं, यस्सर्वत आबभूव यस्मिन् विश्वा भुवनानि वर्त्तन्ते, स एव षोडशी प्रजया सह संरराणः प्रजापतिस्त्रीणि ज्योतींषि सचते ॥५ ॥
भावार्थभाषाः - यस्मादीश्वरोऽनादिर्वर्त्तते ततस्तस्मात् पूर्वं किमपि भवितुन्न शक्यम्। स एव सर्वासु प्रजासु व्याप्तो जीवानां कर्माणि पश्यन् संस्तदनुकूलफलं ददन्न्यायं करोति येन प्राणादीनि षोडश वस्तूनि सृष्टान्यतः स षोडशीत्युच्यते। प्राणः, श्रद्धाऽऽकाशं, वायुरग्निर्जलं, पृथिवीन्द्रियं, मनोऽन्नं, वीर्य्यं, तपो, मन्त्रः, कर्म, लोकाः, नाम च षोडश कलाः। प्रश्नोपनिषदि षष्ठे प्रश्ने वर्णिताः। एतत्सर्वं षोडशात्मकं जगत् परमात्मनि वर्त्तते तेनैव निर्मितं पाल्यते च ॥५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर अनादी असल्यामुळे त्याच्यापेक्षा प्रथम असे काहीच नसते. तोच सर्व लोकांमध्ये व्याप्त असून, जीवांचे कर्म पाहतो व त्यानुसार फळ देतो आणि न्याय करतो. प्राण इत्यादी सोळा वस्तू त्याने बनविलेल्या आहेत त्यामुळे त्याला षोडशी म्हणतात. (प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायू, अग्नी, जल, पृथ्वी, इंद्रिये, मन, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम) या सोळा कला प्रश्नोपनिषदामध्ये आहेत. हे षोडश वस्तूरूपी जग परमेश्वरामध्ये आहे व तोच त्यांचे पालन करतो.